एक गीत मैं रोज सुनता हूं किसी प्यासे को पानी पिलाया नहीं, तो मंदिर में जाने से क्या फायदा।
गर्मी बहुत है। आप सभी से आग्रह है की अपने घर की छत पर रोज साफ पानी किसी पात्र में डालकर रखे,पक्षी पानी पीयेंगे तो बहुत पुण्य मिलेगा। प्यासे को पानी पिलाना लोक-जीवन में बड़ा पुण्य माना जाता है। ग्रीष्मकाल में कस्बों और नगरों में प्याऊ की व्यवस्था इसी पुण्य-बोध का परिणाम है, पर आज सभी स्थानों पर पानी विक्रय की वस्तु बन गया है।
जिस समाज में कभी दूध नहीं बेचा जाता था, उसमें पानी के पाउच और पानी की बोतलें बिक रही हैं। जहां इनकी पहुंच नहीं है, वहां मटकों में भरा पानी बिक रहा है। यह बदलते व्यावसायिक युग की मानसिकता भी है और एक अनिवार्यता भी। जो चीज दुर्लभ होने लगती है, उसकी कीमत पहचानी जाने लगती है और फिर वह व्यावसायिक चलन में आ जाती है।
पानी का अब व्यावसायिक मूल्य है। पीने के पानी को बेचने के लिए अरबों रुपयों का व्यवसाय किया जा रहा है। एक समय था, जब राज्य सत्ताएँ राहगीरों की प्यास बुझाने के लिए मार्ग में कुओं-बावड़ियों का निर्माण करती थीं।
सामाजिक संस्थाएं और दानशील व्यक्ति भी ऐसे जल केन्द्रों का निर्माण सार्वजनिक स्थानों और पानी की अनुपलब्धता वाले स्थानों में प्राथमिकता के आधार पर कराते थे और अशासकीय एवं धर्मार्थ संस्थाओं के माध्यम से पानी सुलभ होता था।
प्याऊ का बदलता स्वरूप इन दिनों नलों में देखा जा सकता है। सार्वजनिक सुविधाओं के प्रति जैसी उदासीनता आम नागरिकों में पनपी वैसी उदासीनता सार्वजनिक जल-केन्द्रों के संबंध में भी अनुभव की जा सकती है। नलों की तोड़-फोड़, उनसे व्यर्थ ही पानी बहना और ऐसे जल केन्द्रों की स्वच्छता में अरुचि आदि कारणों ने हमारे समय के जल विषयक चिंतन को ही बदल दिया है।
सार्वजनिक जल केन्द्रों के पानी का प्रदूषित होना और उसे प्रदूषित समझना दोनों तरह की स्थितियों का प्रचलन आम सोच का विषय बना है। यह भी प्रचारित किया जा रहा है कि स्वास्थ्य के लिए बोतलबंद पानी ही पिया जाए। ऐसी परिस्थितियों में जल-दान का महत्व भी कम होता जा रहा है।
लोक-परंपरा में जल-दान का महत्व अभी भी बना हुआ है। गांव में घर के दरवाजे पर आने वाले प्रत्येक आगंतुक का स्वागत आज भी जल पिला कर ही किया जाता है। घर पधारे अतिथि को जल पिलाना लोक-संस्कार में अब भी अपनी जगह जस का तस है।
चैत्र का महीना जब आधा व्यतीत हो जाता है, तब सूर्य की किरणों का ताप इतना बढ़ने लगता है कि हवा में तीखी तपिश का अहसास होने लगता है। दोपहरी का विस्तार हो जाता है। आंगन में रखे जाने वाले पानी के घड़े घर के भीतर की घिनौची में चले जाते हैं। ऐसी स्थिति में घर के आसपास रहने वाले चिरई-चिनगुन, जो अक्सर आंगन में रखे बर्तनों में चोंच डुबाकर अपनी प्यास शांत कर लेते थे, पीने के लिए पानी प्राप्त करने में असमर्थ होने लगते हैं।
इन पक्षियों की प्यास बुझाने के लिए गांव में घर के सायवान में, दहलान में अथवा खुले किन्तु छायादार स्थान में एक खुले पात्र में पानी टांग दिया जाता है। ज्यादातर ऐसा पात्र मिट्टी के घड़े को आधा फोड़कर बनाया जाता है। घड़े का नीचे वाला आधा हिस्सा तसलानुमा रहता है। इसमें पानी भी अच्छी मात्रा में भर जाता है। टूटे घड़े की गोलाई वाली सतह पर बैठी चिड़ियां पानी पीती रहती हैं। चिड़ियों को पानी पिलाना पुण्य का कार्य माना जाता है।
गांवों में कुओं के पास बड़ा हौज बनाया जाता है। इस हौज में गर्मी प्रारंभ होते ही कुएं से पानी खींचकर भरने का रिवाज रहा है। सबेरे-सबेरे हौज को भर दिया जाता था। दिनभर गर्मियों में विचरण करने वाले पशु इस हौज से पानी पीते रहते थे।
गांवों के रईस, मालगुजार और धनाढ्य जन कुएं और हौज बनवाया करते थे। उसे प्रतिदिन जल से आपूरित भी कराते थे। लोहे की लंबी सांकल में बंधा धातु का एक डोल कुएं की जगत से स्थायी रूप से बंधा रहता था। यहां से गुजरने वाले यात्रीगण इस डोल से पानी निकालते थे और अपनी प्यास शांत करते थे। पशु-पक्षियों और मनुष्यों को पानी पिलाने की ये प्रथाएं स्पष्ट करती हैं कि लोक-जीवन में पानी पिलाने को धार्मिक दृष्टि से पुण्य-कार्य माना गया था। आज ये प्रथाएं लुप्त प्रायः हैं।
जल-दान का महत्व देवताओं को जल समर्पित करने में भी रेखांकित किया जा सकता है। स्नान के उपरांत अंजुरी में जल लेकर सूर्य को समर्पित करने का विधान हमारे दैनिक क्रिया-कलापों में शामिल है। पांच या सात अंजुरी अर्घ्य सूर्य देवता को दिया जाता है। लोटे या धातु के अर्घा से भी जल समर्पित किया जाता है। देवताओं के श्री विग्रहों पर जल चढ़ाने की परंपरा है।
प्रायः तीर्थ-स्थानों में जलाभिषेक अनिवार्य रहता है। विभिन्न पवित्र नदियों का जल वर्षों तक घर में इसलिए रखा जाता है कि उसे किसी विशेष देवता को चढ़ाना है। एक धार्मिक विधान है कि गंगोत्री से लाया गया गंगाजल रामेश्र्वरम् में शंकर को समर्पित किया जाता है। गांवों की दिनचर्या में यह संभव नहीं हो पाता है कि गंगोत्री की यात्रा करने वाला तत्काल रामेश्र्वर की यात्रा कर सके। इसलिए गंगाजल कुछ दिन घर में निवास करता है।
अनुकूल समय आने पर जल चढ़ाने के लिए दक्षिण की अलग से तीर्थयात्रा की जाती है। लोक में इन दोनों यात्राओं के नाम जल केन्द्रित है। गंगोत्री की यात्रा जल भरने जाने की यात्रा होती है, जबकि रामेश्र्वरम की यात्रा जल चढ़ाने की यात्रा होती है। यह देवताओं के लिए किया गया जलदान ही है।
वैशाख माह में शंकर की प्रस्तर पिंडी पर दिन-रात जल प्रवाहित किया जाता है। शिव स्थापना चाहे आंगन के तुलसी चौबर पर हो या मंदिर के गर्भगृह में, सभी जगह एक माह तक उनको जल से भिगोया जाता है। प्रस्तर पिंडी से थोड़ी अधिक ऊंची एक तिपाई पर एक घड़ा रखा जाता है, घड़े की तलहटी में छेद किया जाता है। इस छेद से एक बत्ती सीधे शंकर की पिंडी के शीर्ष पर लटकती रहती है। इस बत्ती से एक-एक बूंद पानी शंकर जी पर टपकता रहता है।
घड़ा खाली होते ही फिर से भर दिया जाता है। शिव-मंदिरों में यह जल-दान परंपरा अभी भी सभी जगह प्रचलित है। एक पौराणिक आख्यान के अनुसार शंकर ने जब समुद्र-मंथन के समय समुद्र से निकले विष का पान कर लिया था तब यह विष उनके गले में इसलिए अटक कर रह गया था कि विष-पान के बाद शंकर को यह ध्यान आया कि उनके हृदय में तो विष्णु का निवास है।
इसलिए यदि यह विष गले से नीचे उतर गया तो विष्णु को कष्ट होगा। अतः शंकर ने विष को अपने गले में ही धारण कर लिया। इस प्रक्रिया में उनका गला नीला पड़ गया। वे तब से नीलकंठ कहलाते हैं। शंकर ने चूंकि विष लोक-कल्याण के लिए पिया था और विष-पान की पीड़ा को सहा था, इसलिए वे कल्याणकारी शिव के नाम से सम्बोधित किए गए।
सामाजिक स्तर पर भी जल-दान विधान विभिन्न तिथि-त्योहारों पर किया गया है। समस्त उत्तर भारत में बसुआ अष्टमी का आयोजन ग्रीष्म में ही किया जाता है। पूरा घर इस दिन बासी भोजन करता है। गांव की कन्याओं को आमंत्रित करके उन्हें कोरे घड़े में शीतल जल भरकर दान दिया जाता है। अक्षय तृतीया को भी घड़ों का पूजन किया जाता है।
सात घड़ों में पानी भरा जाता है। आम के पत्ते और आम के फल इन घड़ों पर रखे जाते हैं। पूजन के बाद इन घड़ों को पानी सहित दान में दे दिया जाता है।
आधुनिक काल में जल-दान के पुण्य को एक बेहतर सामाजिक सेवा के रूप में अनुभव किया जा सकता है। रेलवे स्टेशनों पर अनेक सामाजिक संगठन जल-दान का सेवा-कार्य करते हैं। शीतल-स्वच्छ जल की आपूर्ति हेतु समर्पित कार्यकर्ता इस कार्य में संलग्न रहते हैं। बाजारों और मेलों में भी इस तरह की निःशुल्क जलापूर्ति जल-दान के महत्व का बोध कराने वाली ही है।
जल-दान की इस परंपरा का पालन करने के लिए हमें अब अलग तरह से सक्रिय होना पड़ेगा। जल की कमी का सामना करना धीरे-धीरे कठिन होता जा रहा है। ऐसे समय में दान करने के लिए जल की प्राप्ति असंभव हो जाएगी। इसलिए जल-संग्रहण करना अब जरूरी हो गया है। जल-संग्रहण ही प्रकारांतर से जल-दान होगा।
हमारे घर के आस-पास और घर पर बरसने वाला पानी व्यर्थ न बहे, इसकी एक-एक बूंद बचाने का हमें प्रयास करना होगा। जल-संग्रह की जो अनेक तरकीबें हैं- उन्हें हम अपनाएं और अपनी धरती को जल से लबालब बनाए रखें। यह हमारा पृथ्वी के प्रति जल-दान होगा। इस जल-दान में ही सृष्टि-रक्षा का भाव सन्निहित है। इस तकनीक से लोक परिचित था। इसी आधार पर उसने तालाबों की संरचना की थी और खेतों में बंधानों को महत्व दिया था।
यह समस्त आयोजन पृथ्वी को सुजलां-सुफलां बनाने का भी था और पृथ्वी का यह जलाभिषेक भी था। जल से संबंधित लोक आचरण प्रजातांत्रिक मूल्यों की रक्षा करने वाला रहा है। हम जल के इस भाव को सुरक्षित रखने का प्रयास करके ही जल को सर्वसुलभ बना सकते हैं।
जल है तो कल है!!
(The blog writer/Compiler is a Management Professional and operates a Manpower & Property Consultancy Firm. Besides, he is President of "Consumer Justice Council", Secretary of "SARATHI", Member of "Jan Manch", Holds "Palakatva of NMC", Is a Para Legal Volunteer, District Court, Nagpur & Member of Family Welfare Committee formed under the directions of Hon. Supreme Court).