राजनीति का नित प्रतिदिन जिस "नीचता" से
पतन हो रहा है और स्वघोषित राजनीतिक
आकाओं और भीड़ में "कंकरों" की तरह उनकी
जी हजूरी करने वालों का उदय हो रहा है वहां
साफ गोई, निश्छल, संस्कारी, व्यक्ति विशेष,
जात-पात, रंग भेद आदि आदि द्वेष रहित
राजनीति की कोई गुंजाइश ही नही बची। और
सवाल ये भी है कि ऐसी राजनीति कौन करना
चाहेगा? जिन्हें राजनीति और सत्ता का खून लग
गया है वो तो कतई नही। संत, फ़क़ीर तो अब
हमारी इस दुनिया में आएंगे भी नही। उनकी
बात, उनकी नसीहत यदि समाज का एक घटक
सुनेगा तो दूसरा घटक क्या करेगा, कहेगा ये वो
भी अच्छी तरह जान गए होंगे। अब उम्मीद हमें
सिर्फ खुद हमसे रखनी होगी। हम याने मतदार।
हम सभी की ये आदत है की हम हमेशा जो
समय चल रहा है उसके बहाव मे बहते जाते है।
जबकी हकीकत ये है की हमारा सिर्फ उपयोग
होता है... कहीं कम कहीं ज्यादा ये दूसरी बात
है.. जिम्मेदार भी हम ही है.. समय समय पर
किसी एक को इतना चढ़ा देते है की हमे ही नही
पता होता की हम क्या कर रहें है। नतीजा हम
सालों से अनुभव कर ही रहे है। किसी को भी
उतना ही सर आँखों पे रखो जितना जरूरी हो
और सही हो.. वरना फिर शिकायत करने का
अधिकार हम खुद ही खो देते है। लेकीन क्या ये
हम से हो सकेगा?
किसी ने क्या खूब कहा है-
"मज़हब, दौलत, ज़ात, घराना, सरहद, , खुद्दारी,
एक मुहब्बत की चादर को कितने चूहे कुतर गए ll"
"अगर ख़ामोश रहता हूँ तो गै़रत मार डालेगी ।
अगर सच बोल दूँगा तो हुकूमत मार डालेगी ।।
बहुत हुशियार रहना है सभी इंसानो को।
लड़ाकर वरना आपस मे सियासत मार डालेगी ।।"
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