एक और बाबा का बैंड बज गया...लेकिन बैंड क्या सिर्फ इन बाबाओं का बजा या हकीकत में हमारी भावनाओं का? हमारी श्रद्धा का? कितना आसान है हमारे जैसों को श्रद्धा मुग्ध करना? मगर क्या वाकई में ये श्रद्धा है? राजनेताओं द्वारा हमारा और "हमारी भावनाओं/उम्मीदों का उपयोग, दुरुपयोग, शोषण" ये तो सदियों से आम बात थी और है, मगर स्वघोषित बाबाओं (व माताओं) ने भी पीछले कुछ दशकों से ये बीड़ा उठा लिया है। शायद मोडर्न कल्चर, तथाकथित उच्च शिक्षा, सो कॉल्ड सोफैस्टिकेशन, अन्धाधुन्द प्रतियोगिता ये सब हमारी अपनी "क्वालीफीकेशन" इन बाबाओं को हमारा सरपरस्त होने के लिए क्वालीफाई करते हैं।
जागना हमें होगा..शीघ्र.. वरना "हमारी भावनाओं /उम्मीदों का उपयोग, दुरुपयोग, शोषण" चलता ही रहेगा..आसारामरहीम के पैरों तले श्रद्धा-आस्था-विश्वास-उम्मीदों का रावण रूपी हरण होता ही रहेगा..